आती हैं याद रोज प्रीतम की कहानियाँ
गुन्जती है कानों मे अभी भी शहनाईयाँ
अकेले बैठी हुँ तेरी राह देखते कब से
बढती जा रही है रोज मेरी तनहाईयाँ
कहीं से तेरे आने की आहट नही होती
गहरी होती जा रही है मेरी खामोशियाँ
बेजुबान हुँ मुझे लोग बेजुबान कहते है
जब से ब्याही गई मेरे संग बेजुबानियाँ
शाम होते ही अंधेरे के साए घेर लेते है
बस कानो मे बजते रहती है शहनाईयाँ
शनिवार, 13 मार्च 2010
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