शनिवार, 13 मार्च 2010

मेरी खामोशियाँ

आती हैं याद रोज प्रीतम की कहानियाँ 
गुन्जती है कानों मे अभी भी शहनाईयाँ

अकेले बैठी हुँ तेरी राह देखते कब से
बढती जा रही है रोज मेरी तनहाईयाँ


कहीं से तेरे आने की आहट नही होती
गहरी होती जा रही है मेरी खामोशियाँ


बेजुबान हुँ मुझे लोग बेजुबान कहते है
जब से ब्याही गई मेरे संग बेजुबानियाँ


शाम होते ही अंधेरे के साए घेर लेते है
बस कानो मे बजते रहती है शहनाईयाँ