ब्लाग बनाने के बाद पिछले कई माह से बीमार चल रही थी, इसलिए ब्लाग पर लिखने का मन ही नहीं किया।
आज बेटा आया है बेंगलुरु से तो कुछ अच्छा लगा, इसलिए सोचा कि कुछ लिख ही दूं। आप अपनी प्रतिक्रिया दिजिएगा। आपके उत्साह बढाने से मैं अभिभूत हूँ।
खूब हमने चित्र संवारे
लाल पीले नीले न्यारे
अपनो ने धोखा दे डाला
जो कहते थे हमें प्यारे
दिन कैसा आ जाता है
अपना ही छल जाता है
कुछ हठधर्मी मुर्ख मिले
स्वांगी ढीठ बेशर्म मिले
सफ़ेद चोला ओढे घूमते
भेड़ खाल में भेड़िए मिले
सत्य कहां कभी छुपता
नित सामने आ जाता है
सच्चाई दिखला जाता है
हमेशा भले बनते रहते वो
बहना-बहना करते हैं वो
कोई बनती है उनकी बेटी
वह कर देती उसकी हेठी
शर्म तो आनी जानी चीज है
अगर बंदा ढीठ हो जाता है
शास्त्र का अंधा ज्ञान बांटे
पैर जैसे कुल्हाडी से काटे
नकटा बन कर फ़िरे नित
नाक सदा सवा हाथ बाढे
सीख कभी वह नही पाता है
सावन का अंधा हरियाता है
शनिवार, 28 अगस्त 2010
शनिवार, 13 मार्च 2010
मेरी खामोशियाँ
आती हैं याद रोज प्रीतम की कहानियाँ
गुन्जती है कानों मे अभी भी शहनाईयाँ
अकेले बैठी हुँ तेरी राह देखते कब से
बढती जा रही है रोज मेरी तनहाईयाँ
कहीं से तेरे आने की आहट नही होती
गहरी होती जा रही है मेरी खामोशियाँ
बेजुबान हुँ मुझे लोग बेजुबान कहते है
जब से ब्याही गई मेरे संग बेजुबानियाँ
शाम होते ही अंधेरे के साए घेर लेते है
बस कानो मे बजते रहती है शहनाईयाँ
गुन्जती है कानों मे अभी भी शहनाईयाँ
अकेले बैठी हुँ तेरी राह देखते कब से
बढती जा रही है रोज मेरी तनहाईयाँ
कहीं से तेरे आने की आहट नही होती
गहरी होती जा रही है मेरी खामोशियाँ
बेजुबान हुँ मुझे लोग बेजुबान कहते है
जब से ब्याही गई मेरे संग बेजुबानियाँ
शाम होते ही अंधेरे के साए घेर लेते है
बस कानो मे बजते रहती है शहनाईयाँ
सदस्यता लें
संदेश (Atom)